वर्तमान लोकसभा चुनाव में नए परिसीमन के बाद कई सीटें इस बार आरक्षित हो गई है। बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव का गृह जिला गोपालगंज भी इसमें शामिल है। पिछले लोकसभा चुनावों में लालू यादव के साले साधु यादव यहां से राजद सांसद थे। मगर, परिसीमन के बाद प्रत्याशियों को लेकर प्रमुख दलों के सामने असमंजस की स्थिति है। कारण, स्थानीय स्तर पर इनके पास कोई बड़ा दलित नेता नहीं है। चर्चा है कि यहां से बाहर के किसी बड़े नेता को चुनाव लड़ाया जाएगा। पिछले दिनों रामविलास की पत्नी के भी यहां से चुनाव लड़ने की चर्चा थी। मगर, शुक्रवार को सीटों का बंटवारा होने के बाद यूपीए से यह सीट राजद को गई है जबकि राजग से यह जद(यू) के खाते में आई है। कयास है कि राजद यहां से रमई राम को टिकट दे सकता है जबकि राजग गठबंधन से मुनिलाल के नाम की चर्चा जोरों पर है। दोनों प्रमुख पार्टियां इस फिराक में हैं कि एक अपने उम्मीदवार के नाम की घोषणा करें तो दूसरा् उसी के अनुसार अपना प्रत्याशी खड़ा करे।
पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान बसपा प्रमुख मायावती गोपालगंज का दौरा कर चुकी हैं। उस दौरान जुटी एतिहासिक भीड़ के कारण भी अन्य पार्टियों के नेता चौकन्नें हैं। बसपा पहले ही जनक चमार को अपना प्रत्याशी घोषित कर चुकी है और उन्होनें चुनाव प्रचार भी शुरू कर दिया है। इधर, सपा भी इस सीट पर अपना उम्मीदवार उतारने की तैयारी में है। पार्टी की ओर से नागा राम का नाम सामने आ रहा है। नागा राम बिहार इंटरमीडिएट काउंसिल, पटना में सचिव रह चुके हैं। वह नेता तो नहीं है मगर गोपालगंज में वह एक जाना पहचाना नाम हैं। सपा ने अपना दलित प्रेम दिखाते हुए उन्हें पार्टी का प्रदेश उपाध्यक्ष भी बना दिया है। लेकिन, इन सबके बीच यहां के स्थानीय दलित नेता संतुष्ट नहीं हैं। आम चर्चा है कि "बिल्ली के भाग से छिका फूटा" भी तो उसे दूसरे जगह के नेता लपकने के लिए तैयार हैं।
Saturday, March 14, 2009
Saturday, March 7, 2009
बापू के सामान से अधिक, 'जय हो' के राइट्स की चिंता, शर्म करो कांग्रेस
खबर है कि ऑस्कर पुरस्कार प्राप्त गाने 'जय हो' के रचयिता गुलजार साहब कांग्रेस के रवैये से खासे नाराज हैं। वजह है कांग्रेस द्वारा फिल्म 'स्लमडॉग मिलियनेयर' के इस गाने के राइट्स को खरीदना। पार्टी गाने को चुनाव में भुनाने की तैयारी में है। बस, इसी बात को लेकर गुलजार साहब की त्यौरियां चढ़ी हुई हैं। साहब कह रहे हैं कि इस गाने ने देश को पहली बार आस्कर दिलाया यह पूरे देश का गाना है। किसी संगठन विशेष द्वारा इसका राजनीतिक इस्तेमाल ठीक नहीं है।
मगर, शायद साहब यह भूल रहे हैं कि वो किसी राजनीतिक पार्टी से बात कर रहे हैं। जिनके लिए फिलहाल किसी की नाराजगी से ज्यादा जरूरी चुनाव का जीतना है। जिसे बापू के निलाम हो रहे सामानों को खरीदने से ज्यादा अपने राजनीतिक इस्तेमाल के गाने खरीदने की चिंता थी।
चलो, अगर सिर्फ राजनीतिक फायदे की ही बात करें तो भी अगर पार्टी बापू के सामानों को खरीदने के प्रति प्रतिबद्धता दिखाती तो वह अधिक राजनीतिक फायदा उठा सकती थी। आखिर, कांग्रेस उन्हीं को आगे रखकर ही तो अब तक सत्ता भोगती आई है।
मगर, शायद साहब यह भूल रहे हैं कि वो किसी राजनीतिक पार्टी से बात कर रहे हैं। जिनके लिए फिलहाल किसी की नाराजगी से ज्यादा जरूरी चुनाव का जीतना है। जिसे बापू के निलाम हो रहे सामानों को खरीदने से ज्यादा अपने राजनीतिक इस्तेमाल के गाने खरीदने की चिंता थी।
चलो, अगर सिर्फ राजनीतिक फायदे की ही बात करें तो भी अगर पार्टी बापू के सामानों को खरीदने के प्रति प्रतिबद्धता दिखाती तो वह अधिक राजनीतिक फायदा उठा सकती थी। आखिर, कांग्रेस उन्हीं को आगे रखकर ही तो अब तक सत्ता भोगती आई है।
नीतिश भी कम चालू नहीं हैं।
भाई, अपने बिहारी मुख्यमंत्री भी कम चालू नहीं हैं। लालू की तरह मसखरे तो नहीं हैं मगर मुस्कराते रहते हैं। लालू की तरह विपक्षी को घुड़कते तो नहीं हैं मगर अपनी कटाक्ष से उसे निरुत्तर कर देते हैं। लेकिन, एक मामले में वो पिछले दिनों लालू की नकल करते दिखे। शायद, यही वजह थी जिससे वो रिक्शे की सवारी कर सनिमा देखने जा पहुंचे। अरे भाई, जब सनिमा देखना ही था तो घर देखते। यूं ढ़ोल पीट कर जाने की क्या जरूरत थी।
याद आते हैं वो दिन, जब लालू मंच से 'भैंस चराने वालों' और 'सूअर चराने वालों' कहा करते थे। वो उन्हें मंच पर बुला लिया करते थे। एक पूरी बिरादरी गदगद। ढ़ेर सारा प्रचार मुफ्त में। काम कम- दाम ज्यादा। लालू को भले ही लोगों ने लाख कोसा हो उनकी इन हरकतों से एक खास वर्ग के लोगों पर उनकी पकड़ से किसी ने इंकार नहीं किया। कम काम करने और ढ़ेर सारे घोटालों में फंसने के बावजूद भी इसी फंडे से लालू ने सालों बिहार पर राज किया।
अब चूंकि नीतिश जी के राज-काज की तारीफ चहुंओर हो रही है और जनता भी उनसे कमोबेश पहले की शासन की अपेक्षा कहीं ज्यादा संतुष्ट है। चुनाव के तारीखों की घोषणा के साथ चुनावी बयार भी चलने लगी है तो शायद नीतिश जी ने यही सोचा होगा कि लालू भैया के फंडे को अपना कर देखा जाए। अगर थोड़ा प्रचार मिल जाए तो हर्ज क्या है। आखिर नीतिश जी भी कम चालू नहीं हैं।
लेकिन, रिक्शे वाले को तीन सौ रुपये देने की उनकी बात पर मुझे एतराज है। भाई हम गरीब जनता है, हमारी भी सोचिए। हमें रोज रिक्शे पर चलना होता है। यूं दाम तो ना बिगाड़िये।
अशोक दास
याद आते हैं वो दिन, जब लालू मंच से 'भैंस चराने वालों' और 'सूअर चराने वालों' कहा करते थे। वो उन्हें मंच पर बुला लिया करते थे। एक पूरी बिरादरी गदगद। ढ़ेर सारा प्रचार मुफ्त में। काम कम- दाम ज्यादा। लालू को भले ही लोगों ने लाख कोसा हो उनकी इन हरकतों से एक खास वर्ग के लोगों पर उनकी पकड़ से किसी ने इंकार नहीं किया। कम काम करने और ढ़ेर सारे घोटालों में फंसने के बावजूद भी इसी फंडे से लालू ने सालों बिहार पर राज किया।
अब चूंकि नीतिश जी के राज-काज की तारीफ चहुंओर हो रही है और जनता भी उनसे कमोबेश पहले की शासन की अपेक्षा कहीं ज्यादा संतुष्ट है। चुनाव के तारीखों की घोषणा के साथ चुनावी बयार भी चलने लगी है तो शायद नीतिश जी ने यही सोचा होगा कि लालू भैया के फंडे को अपना कर देखा जाए। अगर थोड़ा प्रचार मिल जाए तो हर्ज क्या है। आखिर नीतिश जी भी कम चालू नहीं हैं।
लेकिन, रिक्शे वाले को तीन सौ रुपये देने की उनकी बात पर मुझे एतराज है। भाई हम गरीब जनता है, हमारी भी सोचिए। हमें रोज रिक्शे पर चलना होता है। यूं दाम तो ना बिगाड़िये।
अशोक दास
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