भाई, अपने बिहारी मुख्यमंत्री भी कम चालू नहीं हैं। लालू की तरह मसखरे तो नहीं हैं मगर मुस्कराते रहते हैं। लालू की तरह विपक्षी को घुड़कते तो नहीं हैं मगर अपनी कटाक्ष से उसे निरुत्तर कर देते हैं। लेकिन, एक मामले में वो पिछले दिनों लालू की नकल करते दिखे। शायद, यही वजह थी जिससे वो रिक्शे की सवारी कर सनिमा देखने जा पहुंचे। अरे भाई, जब सनिमा देखना ही था तो घर देखते। यूं ढ़ोल पीट कर जाने की क्या जरूरत थी।
याद आते हैं वो दिन, जब लालू मंच से 'भैंस चराने वालों' और 'सूअर चराने वालों' कहा करते थे। वो उन्हें मंच पर बुला लिया करते थे। एक पूरी बिरादरी गदगद। ढ़ेर सारा प्रचार मुफ्त में। काम कम- दाम ज्यादा। लालू को भले ही लोगों ने लाख कोसा हो उनकी इन हरकतों से एक खास वर्ग के लोगों पर उनकी पकड़ से किसी ने इंकार नहीं किया। कम काम करने और ढ़ेर सारे घोटालों में फंसने के बावजूद भी इसी फंडे से लालू ने सालों बिहार पर राज किया।
अब चूंकि नीतिश जी के राज-काज की तारीफ चहुंओर हो रही है और जनता भी उनसे कमोबेश पहले की शासन की अपेक्षा कहीं ज्यादा संतुष्ट है। चुनाव के तारीखों की घोषणा के साथ चुनावी बयार भी चलने लगी है तो शायद नीतिश जी ने यही सोचा होगा कि लालू भैया के फंडे को अपना कर देखा जाए। अगर थोड़ा प्रचार मिल जाए तो हर्ज क्या है। आखिर नीतिश जी भी कम चालू नहीं हैं।
लेकिन, रिक्शे वाले को तीन सौ रुपये देने की उनकी बात पर मुझे एतराज है। भाई हम गरीब जनता है, हमारी भी सोचिए। हमें रोज रिक्शे पर चलना होता है। यूं दाम तो ना बिगाड़िये।
अशोक दास
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